क्रांतिकारी कविता (पीयूष मिश्रा)
आज पीयूष मिश्रा की एक कविता पेश कर रहा हूं उम्मीद है आप को पसंद आएगी।
वक़्त के पन्नो की रफ्तार का आलम क्या पूछो सरकार,
भागते रहते यूँ हर बार गली बाजार छोड़ कर।
साथ में लेकर चलते हैं वो बीती उथल पुथल की मार,
वला से रुके चले कोई भी कारोबार छोड़ कर।
थाम लेते हैं तो वो सभी लगामें घड़ी घड़ी की,
रोक लेते हैं वो तो चट्टान बड़ी बड़ी भी।
और जो आया कोई ख़ौफ़नाक तूफानी नाला,
थपक के सुला देते हैं चट्टाने बड़ी चढ़ी सी।
उन्हें तो कहाँ हुआ है भूले बिसरे मौसम रुत से प्यार,
वो तो बस चलते जाते पतझड़ और वहार छोड़ कर।
इंक़लाब ज़िन्दाबाद
वक़्त के पन्नो की रफ्तार का आलम क्या पूछो सरकार,
भागते रहते यूँ हर बार गली बाजार छोड़ कर।
साथ में लेकर चलते हैं वो बीती उथल पुथल की मार,
वला से रुके चले कोई भी कारोबार छोड़ कर।
थाम लेते हैं तो वो सभी लगामें घड़ी घड़ी की,
रोक लेते हैं वो तो चट्टान बड़ी बड़ी भी।
और जो आया कोई ख़ौफ़नाक तूफानी नाला,
थपक के सुला देते हैं चट्टाने बड़ी चढ़ी सी।
उन्हें तो कहाँ हुआ है भूले बिसरे मौसम रुत से प्यार,
वो तो बस चलते जाते पतझड़ और वहार छोड़ कर।
इंक़लाब ज़िन्दाबाद
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